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गवाह नंबर तीन

विमल मित्र

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3710
आईएसबीएन :81-284-0074-6

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प्रस्तुत है एक रोचक उपन्यास..

Gwah Number Teen

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

जल्दबाजी में लिखी गई मेरी यह कहानी जब पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, मुझे जरा भी पसंद नहीं आई थी और फिर मेरी कौन-सी कहानी मेरी मनपसंद होती ही है। छपने के बाद जब भी कोई अपनी कहानी पढ़ने बैठा-जंची नहीं। सोचा-थोड़ा और मन लगाकर, थोड़ी और मेहनत से लिखता तो अच्छा रहता।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मनुष्य के पास समय ही कहां है! मनुष्य का आज का धर्म हो गया है-आगे बढ़ते चलो-सबको पीछे चलो-धक्का मारकर, चोट पहुंचाकर-किसी भी तरह बढ़ते चले जाओ। रुकने का समय नहीं, पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं, दो क्षण सोचने के लिए भी किसी के पास वक्त नहीं-क्योंकि उन्हीं दो क्षणों में तुम्हारे पीछे के वे लोग तुमसे आगे बढ़ जाएंगे।

इसीलिए कभी-कभी मैं अपने लिए सोचता हूं। दूसरों के साथ दौड़ने की इस प्रतियोगिता में क्या मैं भी उतर पड़ा हूं ?
पर साहित्य तो समय का फल है, जमीन को भी कुछ दिनों के विश्राम की जरूरत होती है, उसे अवसर दिया जाता है-तभी फसल अच्छी होती है। मैं इन बातों को जानता हूं, फिर भी आजकल क्यों इतना लिखता हूं ? मन को जरा भी आराम नहीं दे पाता !
संभवतः यही इस व्यस्त युग का अभिशाप है। मैं भी उस अभिशाप को ही भोग रहा हूं। नहीं तो सरयू को लेकर जो कहानी लिखी है, वह और सोच-समझकर समय लेकर लिखता तो बात बनती।

ताज्जुब है ! सरयू की कहानी इतनी जल्दी मुझे लिखनी पड़ेगी, यह मैंने कभी नहीं सोचा था। हमारे जीवन में प्रतिदिन संपादकों और प्रकाशकों के तकाजे सांसारिक और वास्तविक जीवन के तकाजे, बाहर से, अंदर से-चारों तरफ से तकाजों का पाप-जीवन को दूभर बना देता है। इन तकाजों के पीछे केवल ‘प्रयोजन’ रहता है-प्यार नहीं।
लेकिन साहित्य तो प्रयोजन पर निर्भर करता। साहित्य केवल प्रीति की फसल है और प्रीति प्रयोजन की परवाह नहीं करती। उसे तो समय चाहिए, गहराई तक पहुंचने के लिए। पर साहित्य सृष्टि के लिए वह ‘समय’ कोई नहीं देना चाहता। कोई राजी नहीं होता, इसीलिए सरयू और निशिकांत को लेकर लिखी गई कहानी भी शायद गहराई तक नहीं पहुंची है। सरयू की जो बात मैं आज लिख रहा हूं-वह बहुत पुरानी घटना है। सोचा था कभी सही अर्थ में जब समय मिलेगा तब लिखूंगा।
लेकिन समय ! अवसर ! इन शब्दों को तो मैं भूल ही चुका हूं। केवल जरूरत और जरूरत की गरज ही जीवन की प्रमुख गरज है।

खैर, कभी मौका मिला तो इस पर भी कुछ लिखूंगा। आज तो सरयू और निशिकांत की ही बात बताता हूं, वह भी इसीलिए कि उस दिन सड़क पर अचानक निशिकांत मिल गया।
मैं पहले तो उसे पहचान ही नहीं पाया। कितना बदल चुका था निशिकांत।
-कुछ पैसे देंगे सर ?
-पैसे ?
इस तरह से मांगने वालों की कलकत्ता में कोई कमी नहीं।
-दीजिए न सर ! बड़ी मुसीबत में पड़ा हूं। नौकरी-चाकरी है नहीं। बच्चों के साथ उपवास चल रहा है। थोड़ा ही सही, जितना हो सके दीजिए।

मैं हैरान होकर उसे देख रहा था। कुछ शक भी हो रहा था। आखिर पूछ ही बैठा-तुम निशिकांत हो न ?
शायद निशिकांत ने भी मुझे पहचान लिया था। दूर खिसकने की कोशिश करते ही मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। बोला-तुम निशिकांत ही हो न ? निशिकांत पहले तो मानने को तैयार नहीं हुआ, पर मैंने भी उसे कुछ बोलने का मौका नहीं दिया। बोला-झूठ बोलने की कोशिश मत करो। अभी तक तुम्हारी आदत सुधरी नहीं। बोला, कहां रहते हो ?
निशिकांत अपने को संभाल नहीं पाया। रो पड़ा, सिसक-सिसककर।
-चुप रहो निशिकांत। बस करो।

उसके बाद उसे लेकर मैं सड़क के किनारे एक रेस्तरां में घुसा। सोचा कुछ खिला दूं। कुछ खा लेने पर शायद स्वस्थ लगने लगेगा। उसे बैठाकर मैंने होटल के बेयरे को कुछ लाने के लिए कहा और मैं उसे देखता रहा। सोचता रहा। सचमुच ही यह क्या वही निशिकांत है। उस दिन अगर वह घटना नहीं घटती तो निशिकांत से मेरा परिचय भी कभी नहीं होता। मैं उस मुकदमे में तीसरा गवाह था। मुकदमा कुछ विचित्र और जटिल-सा था। फिर भी मनुष्य के जीवन में चाहे कितनी भी जटिलता क्यों न हो, मनुष्य की बनाई अदालत उसे जटिल जीवन की ऐंठनी को खोलने के बजाय उसे और भी जटिल बना देती है। मैं कैसे इस मुकदमें में तीसरा गवाह बना इसका भी एक खास कारण था।
कारण यह था कि मैं इस सारे मामले को पूरी तरह जानता था।
आज याद आता है, सरकारी वकील ने मुझसे पूछा था-क्या आप इस आसामी को जानते हैं ?
उत्तर में मैंने ‘हां’ कहा था।

-आपने इसे पहले भी कभी देखा था ?
-जी।
-अपनी राय में आप आसामी को अपराधी मानते हैं या नहीं ?
-मैं उसे अपराधी मानता हूं।
-क्यों ? सरकारी वकील ने जिरह शुरू की।
इसके जवाब में मैंने क्या कहा था-उसे कहने के लिए मुझे पाठकों को शुरू से पूरा इतिहास बताना पड़ेगा। वही बताता हूं।
व्यक्तिगत रूप से मेरी धारणा रही है कि प्रत्येक कलात्मक रचना के पीछे एक सामाजिक नीतिबोध रहता है इसका अर्थ यह नहीं कि मनुष्य को नैतिक शिक्षा देना ही साहित्य का धर्म है, क्योंकि ऐसा होने से तो वह या तो धर्म-पुस्तक बन जाएगी या फिर पाठय पुस्तक। साहित्य की जो अधिष्ठात्री देवी है वह धर्म नहीं मानती, शिक्षा भी नहीं मानती। वह केवल एक ही चीज मानती है और वह है रस।

इस रस का क्या अर्थ है, क्या व्याख्या है, यह किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलता। दुनिया में ऐसा कोई विश्वविद्यालय भी नहीं, जहां धरना देने पर इस रस की डिग्री मिल सके। इस रस का स्वाद तो जिन्होंने लिया है केवल वही इसका यथार्थ भी समझ पाते हैं। भाषण देकर नहीं समझाया जा सकता। किताबें लिखकर भी इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, और न ही इसे औषधि की तरह जबरन घोंटा जा सकता है। यह जो रस है, इसका कोई देशभेद, जातिभेद या युगभेद नहीं। यह तो अनादि, अनन्त अव्यय, अक्षय, अपार्थिव एक उपलब्धि है। परंतु अपार्थिव होकर भी इसका मूल पृथ्वी के हृदय में रहता है। मानव-मन की गहराई तक इसकी जड़ें फैली रहती हैं। रस के संबंध में इतना कुछ कहने का भी एक कारण है।
अगर यह कारण बता दूं तो आप समझ जाएंगे कि मैं क्यों रस के लिए इतना बक रहा हूं।

कुछ दिन पहले अर्थात् बहुत वर्षों पहले मैं एक नौकरी करता था जिसके कारण मुझे करीब-करीब सारे हिंदुस्तान में रेल से सफर करना पड़ता था। खुलकर ही बता देता हूं। पुलिस की नौकरी थी मेरी।
पुलिस की नौकरी तो करता था पर बाहर वालों के लिए यह जानना मुश्किल था कि मैं पुलिस का कोई आदमी हूं। यह तो सभी जानते हैं कि पुलिस भी तरह-तरह की होती है। जल-पुलिस, रेल-पुलिस और साधारण लाल पगड़ी वाली पुलिस। लेकिन इन सबके अलावा भी एक तरह की पुलिस होती है। उसके आदमियों को देखने पर यह समझना मुश्किल है कि वे पुलिस में हैं क्योंकि आपकी-हमारी तरह वे भी ट्रेनों, स्टीमरों और सड़कों पर साधारण पोशाक पहनकर आम आदमी की तरह घूमते हैं और मौका पाकर अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं। मैं भी ऐसी ही पुलिस का आदमी था। इसी तरह एक दिन अचानक एक महिला मेरे पास आकर बोली-देखिए, मेरा एक काम कर देंगे ?

मैं थोड़ा हैरान-सा हो गया। महिला बिलकुल अनजान थी। उम्र कच्ची थी। देखने में अच्छी थी। कहीं-कहीं थोड़ा अंधेरा-सा था। कलकत्ता जाने वाली गाड़ी आने ही वाली थी। मुझे जाना भी वहीं था।
मैंने महिला की तरफ देखा। पुलिस का आदमी भले ही हो-दया-ममता तो हर मनुष्य में होती है। पूछा-क्या काम है, कहिए ?
वह महिला अत्यंत ही भद्र ढंग से बोली-देखिए, मैं चाय पीने जा रही हूं। तुरंत वापस आ जाऊंगी। क्या मेरा यह सूटकेस अपने पास रख सकेंगे ?

सूटकेस रखने से भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? इसलिए बोला-छोड़ जाइए, पर ज्यादा देर नहीं कीजिएगा।
वह बोली-मैं गई और आई बिलकुल देर नहीं होगी।
मैं चुपचाप सामान के आस-पास चहलकदमी करने लगा। ट्रेन की प्रतीक्षा में अधीर हो रहा था। सोच रहा था रिजर्वेशन तो है ही-बस गाड़ी आते ही अपने बर्थ पर चैन से सो जाऊंगा। लेकिन काफी समय बीत चुका, वह महिला नहीं आई। मैं सोच ही रहा था कि चाय की दुकान तक जाकर देख आऊं। पता नहीं चाय या उसके साथ दो बिस्कुट खाने में इतनी देर क्यों लग रही थी। वास्तव में मैं चिंता में पड़ गया था कि अगर अंत तक वह नहीं लौटी, तब क्या होगा ? न जाने क्यों मेरे मन में एक अजीब-सा शक पैदा हो रहा था। इसी बीच एक तमाशा हुआ।

पुलिस की एक छोटी टुकड़ी मेरे पास आई। थोड़ी देर पहले आबकारी-पुलिस के ये लोग यों ही प्लेटफार्म पर घूम-फिर रहे थे। सभी के माल पर इनकी कड़ी नजर थी। किसी पर शक होने से उनके बक्सों को खोलकर भी देख रहे थे।
मेरे पास भी आकर उन्होंने पूछा-सूटकेस के अंदर क्या है ?
मैंने कहा-मेरे कपड़े-लत्ते वगैरह।
पुलिस की उस टुकड़ी के जो बड़े साहब थे वे जिस माल पर संदेह होता, उस पर अपनी छड़ी से ठोंककर पूछा-ताछी करते। मुझसे भी उन्होंने पूछा-और यह ?
-यह पोर्टफोलियो है।
-उसमें है क्या ?

-आफिस के कागजात वगैरह।
-बैग खोलकर दिखलाइए।
मैं थोड़ा नाराज हुआ। बोला-आप मुझ पर शक कर रहे हैं।
वह बोले-हम एक्साइज डिपार्टमेंट के आदमी हैं और मैं आबकारी-विभाग का इंस्पेक्टर हूं, इसलिए देखना चाहता हूं कि इसमें कोई गैरकानूनी चीज है या नहीं ?
मैंने कहा-अवश्य देखिए ! इतना कहकर मैंने अपनी पोर्टफोलियो खोल दिया। वह समझ गए कि मैं भी सरकारी काम करता हूं इसलिए मुझे और अधिक परेशान नहीं किया। मुझे छोड़ वह मेरे पास ही में बैठे एक सज्जन को ले बैठे। वह बेचारे सपरिवार ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठे थे। बच्चों के साथ वह परेशान-से दिखाई दे रहे थे-संभवतः सोच रहे थे कि ट्रेन पर सही-सलामत सबके साथ चढ़ पाएंगे या नहीं। ढलती उम्र के थे। कोई सयाना लड़का या मददगार भी साथ में नहीं था।
उनसे भी वही सवाल पूछा गया।

-आपके ट्रंक में क्या है ?
केवल ट्रंक ही नहीं, बिस्तरबंद, सूटकेस सब कुछ तितर-बितर कर देखा। शायद यह सज्जन सपरिवार पुण्य कमाने के लिए नेपाल में पशुपतिनाथजी का दर्शन करने निकले थे। पर ये पुलिस वाले भी किसी को छोड़ते नहीं। वह प्रौढ़ सज्जन अत्यंत घबराकर सारा सामान खोल-खोलकर दिखा रहे थे। सारा कुछ देखकर तसल्ली से जैसे ही इंस्पेक्टर साहब आगे बढ़े कि अचानक मेरे पास पड़े महिला के उस सूटकेस पर उनकी नजर पड़ी गई।
पूछा-यह सूटकेस किसका है ? क्या है इसमें ?
सभी यात्री अपना-अपना सामान देखने लगे। अचरज में पड़े थे-आखिर यह प्रश्न पूछा किससे जा रहा है। इंस्पेक्टर साहब ने बेंत की छड़ी से सूटकेस पर चोट करते हुए पूछा-इसे तो खोलकर नहीं दिखाया गया। इसे खोलिए।
एक बूढ़े सज्जन पास में ही बैठे थे। रूआंसे-से होकर बोले-यह मेरा सूटकेस नहीं है। यह उनका-कहकर उंगली उठाकर मुझे दिखा दिया।

इंस्पेक्टर अब मेरी तरफ मुड़े। पूछा-यह सूटकेस आपका है ?
मैंने कहा-नहीं।
मेरे आस-पास बैठे कई लोगों से उन्होंने पूछा कि यह सूटकेस उनमें से किसी का है या नहीं। पर वह सूटकेस उनमें से किसी का था ही नहीं, तो वे यह स्वीकार कैसे करते ? अब मैंने आगे बढ़कर कहा-यह सूटकेस एक महिला का है। वह इसे मेरे पास छोड़कर चाय पीने के लिए गई हैं-अभी लौट आएंगी।
-कहां चाय पीने गई हैं ?
मैंने कहा-वो तो मैं नहीं बता सकता। पर कह गई थी कि चाय की स्टाल पर जा रही है। सूटकेस चोरी न हो जाए, इसलिए मुझे ध्यान रखने के लिए कह गई।

इंस्पेक्टर साहब ने एक कांस्टेबल को चाय की स्टाल पर भेजा और मुझसे पूछा-कैसी थी वह, कितनी उम्र होगी ?
मैंने जैसा देखा या समझा था, वर्णन कर दिया।
कांस्टेबल उसी आधार पर उसे ढूंढ़ने निकल पड़ा, लेकिन उल्टे पांव लौटकर उसने बताया कि चाय की स्टाल पर या आसपास किसी महिला को चाय पीते हुए स्टाल वालों ने देखा ही नहीं और सच में चाय पीने की फुर्सत ही उस समय किसको थी। सबको ट्रेन की जल्दी थी।
एक कांस्टेबल को मेरे पास छोड़कर इंस्पेक्टर बाकी यात्रियों के माल को परखने लगा। मैंने भी चारों तरफ नजर दौड़ाई, पर वह कहीं भी नहीं दिखाई पड़ी। ट्रेन आने का वक्त हो चुका था। इंस्पेक्टर साहब ने लौटकर दुबारा मुझसे पूछा-कहां गई आपकी वह महिला ?

-मालूम नहीं। मुझे तो अभी तक दिखाई नहीं दी है। कहकर तो गई कि चाय पीकर तुंरत लौट आएगी।
इंस्पेक्टर का मुझ पर शक हो गया। उन्होंने थोड़ी कड़ाई से कहा-यदि सूटकेस वाकई दूसरे का होता तो वह अवश्य लौटता। असल में यह आप ही का सूटकेस है। इसे खोलिए और दिखलाइए कि इसमें क्या है ?
मेरा भी क्रोध बढ़ रहा था। बोला-मुझे कोई आपत्ति नहीं परंतु....
इंस्पेक्टर बोला-आप अपना नाम-धाम और परिचय भी बतलाइए। मेरे साथ आपको थाने चलने पड़ेगा। इतना कुछ कहकर वह मुझे डराने की कोशिश कर रहे थे।

मैं अपना परिचय और न छुपा सका। जेब से आइटेण्टिटी कार्ड फोटो सहित निकालकर उन्हें दिखाया-कार्ड देखकर वह चौंक पड़े। बोले-आप सी.बी.आई. के आदमी हैं। पहले क्यों नहीं बताया ?
मैंने कहा-पहले आपने मेरा परिचय पूछा ही कहां था ?
इंस्पेक्टर साहब बोले-मुझे तो ऐसा लग रहा है कि यह किसी स्मगलर की बदमाशी है। अगर हम इसका ताला तोड़ डालें तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी ?
मैंने कहा-बिलकुल नहीं। जिसकी चीज है जब उसे ही परवाह नहीं तब आप इस सूटकेस को लेकर कुछ भी कर सकते हैं। मैं आपत्ति करूंगा भी क्यों ? और आप मेरी आपत्ति सुनेंगे भी क्यों।

अंत में सूटकेस का ताला तोड़ा गया। कुछ साड़िया, ब्लाउज, तौलिये आदि थे। और उन सबके नीचे गांजा भरा हुआ था।
सूटकेस को टूटते देखकर बाकी पैसेंजरों ने भीड़ लगा दी। सभी गांजा देखकर हैरान हो रहे थे। मैं तो सर्वाधिक हैरान था, क्योंकि खुद पुलिस-विभाग का आदमी होकर भी मैंने उस महिला पर शक नहीं किया-यह मेरी नालायकी थी।
इंस्पेक्टर मेरी तरफ देखकर बोला-आपकी कोई गलती नहीं है। इस लाइन में हमेशा ही ऐसा होता रहता है। खासकर जिस महिला के लिए आप बोले रहे थे, हमें उसकी तलाश बहुत दिनों से है...पकड़ में आती ही नहीं। अंत में वह सूटकेस लेकर चल पड़े।
ट्रेन आ चुकी थी। दूसरे यात्रियों के साथ मैं भी ट्रेन पर सवार हो गया और दूसरे दिन कलकत्ता पहुंचा गया। वह महिला कौन थी, नेपाल से इतना गांजा लेकर क्यों आ रही थी...उसके पीछे कोई ऐसा-वैसा दल था या नहीं....मैं कुछ भी नहीं जान पाया।


2


ये सारी बातें पुरानी हैं। आज इतने दिनों के बाद चाय की दुकान पर निशिकांत के साथ बैठकर उसे ही देख रहा था। उसी के बारे में सोच रहा था। पक्का शराबी था निशिकांत पर आज उसका चेहरा बिलकुल ही बदला हुआ लगता था। उस दिन निशिकांत से किए दुर्व्यव्यहार के लिए मुझे दुख हो रहा था।
पर निशिकांत की नजर किसी चीज पर नहीं थी। वह मन लगाकर खाता रहा-चॉप, कटलेट, आमलेट, केक। मानो बहुत दिनों से अच्छा कुछ खाया ही न हो।
मैंने पूछा-एक कटलेट और लोगे निशिकांत ?
वह निर्विकार भाव से बोला-हां, ले सकता हूं।

मैंने बेयरे को बुलाकर कहा-एक गरम चिकेन कटलेट बनाकर ले आओ।
बेयरा चला गया। निशिकांत खाते-खाते बोला-असली घी में तला हुआ कटलेट है। इस दुकान पर मैंने पहले भी कई बार खाया है। उसके बाद मुझसे बोला-आप भी एक कटलेट खाइए न ?
मैंने कहा-नहीं ! अभी तुरंत खाकर ही घर से चला था तुम खाओ।
बेयरा कटलेट दे गया। गरम धुआं निकल रहा था। मुझे लगा खाते-खाते भी निशिकांत की जीभ से लार टपक रही थी।
मेरी इच्छा हो रही थी-निशिकांत जी भरकर खाए। बहुत तकलीफें झेली हैं उसने जीवन में। अभी कम-से-कम थोड़ी तृप्ति से खा ले।

निशिकांत खा रहा था और मैं सोच रहा था। उन दिनों की बात सोचते ही सारी पुरानी बातें याद आ गई। मोकामाघाट स्टेशन पर गांजा से सूटकेस के पकड़े जाने की बात। कुछ ही दिनों बाद एक और तमाशा हुआ और उस तमाशे के बाद मेरे जीने का ढंग ही बिलकुल बदल गया।
उन्हीं दिनों मैंने एक किताब लिखी थी। उसकी प्रशंसा हुई कि मैं विख्यात हो गया, हालांकि कुछ लोगों ने किताब की बुरी समीक्षा भी की थी। जिन्होंने ऐसी समीक्षा की, उन्होंने मेरी किताब के पन्ने तक नहीं उलटे। किताब के अंदर मैंने क्या ऊल-जलूल भरा था, उसे देखने की भी चेष्टा नहीं की। केवल सोचा साहित्यिक दुनिया में यह कहाँ से टपक पड़ा ? मेरी थाली का हिस्सेदार। मैं तो निर्विकार बन गया था, और फिर करता भी क्या ? उनकी समालोचना से मैं विचलित हो जाऊं, उनकी इस भावना को मैं भांप गया था। इसीलिए उनकी सारी कोशिशों के बावजूद मैं निर्विकार ही बना रहा। साथ ही सभी दोस्तों और दुश्मनों-सभी से अलग रहकर और भी अच्छी तरह लिखने की चेष्टा में डूबा रहा और पुलिस की नौकरी छोड़ दी। केवल नौकरी ही नहीं छोड़ी, कलकत्ता के कोलाहल से दूर एक उपनगर में मैंने एक फ्लैट किराये पर ले लिया। शहर और निन्दा से दूर इस एकांत जगह में एक बड़ा-सा उपन्यास लिखने में मग्न हो गया।

 

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